सूरदास का जीवन परिचय एवं रचनाएँ | Surdas ka Jivan Parichay 

September 20, 2024
सूरदास का जीवन परिचय
Quick Summary

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  • सूरदास का जन्म 15वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। उनके जन्मस्थान के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन माना जाता है कि उनका जन्म ब्रजमंडल में हुआ था। वे भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक थे।
  • सूरदास जन्म से ही अंधे थे, लेकिन उनकी आंखों की अंधता ने उनकी आध्यात्मिक दृष्टि को और तेज कर दिया था।
  • सूरदास भगवान कृष्ण के परम भक्त थे। उन्होंने अपनी सभी रचनाएँ कृष्ण और राधा के प्रेम पर केंद्रित की हैं। उनकी कविताओं में कृष्ण की लीलाओं और उनके और राधा के प्रेम का अद्भुत वर्णन मिलता है।

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भक्तिकाल की सगुण धारा के कृष्ण भक्त कवि सूरदास का नाम सबसे पहले आता है। सूरदास को भारत का और भक्ति काल का सूर्य भी कहा जाता है। Surdas ka Jivan Parichay / सूरदास का जीवन परिचय और उनकी रचनाएं पूरी तरीके से कृष्ण भक्ति को समर्पित की जाती है। सूरदास पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तर भारत में एक संत, संगीतकार और कवि थे।

कृष्ण के वात्सल्य को जन-जन के मन में बसा देने का काम सूरदास जी ने बड़ी भली भांति किया है। उनके बारे में ऐसी बहुत सी रोचक बातें हैं जिनके बारे में अगर पढ़ने बैठ तो पूरी उम्र कम पड़ सकती है। फिर भी उनके जीवन से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातों के ऊपर चली नजर डालते हैं।

सूरदास का जीवन परिचय और प्रारंभिक जीवन | Surdas ka Jivan Parichay

नाम (Name)सूरदास
जन्म तारीख (Birth Date)1478 ई०
जन्म स्थान (Birth Place)रुनकता ग्राम
मृत्यु का स्थान (Death)पारसौली
पिता का नाम (Father’s Name)पंडित रामदास
माता का नाम (Mother’s Name)जमुनादास बाई
सूरदास किसके शिष्य थे? (Mentor)आचार्य बल्लभाचार्य
भक्तिकृष्ण की भक्ति
भाषा की शैलीब्रज
रचनाएँ (Creations)सूरसागर
सूरसारावली
साहित्य लहरी
कृष्ण की बाल- लीलाओं
कृष्ण लीलाओं का चित्रण
मृत्यु1583 ई., परसोली, मथुरा के निकट

सूरदास का जन्म

सूरदास का वात्सल्य वर्णन करें तो कृष्ण काव्य धारा के इस महान कवि का जन्म, 1478 में सिही गांव में हुआ है। उनके जन्म स्थान के बारे में अलग-अलग राय मिल जाती है।

सूरदास के परिवार के बारे में दो मत आपको बहुत आसानी से मिल जाएंगे। सबसे पहले मत तो ये कि उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके माता का नाम जमुनादास और पिता का नाम रामदास था।

कहा जाता है की बचपन से ही अंधे होने की वजह से उनके माता-पिता ने उनका त्याग कर दिया था। इस विषय में कोई प्रमाण तो नहीं मिलता है लेकिन लोक कथाओं में यही बात सबसे ज्यादा प्रचलित है।

वहीं दूसरी और साहित्य लहरी के अंतिम एक पद के मुताबिक सूरदास जी पृथ्वीराज के कवि चंदवरदाई के वंशज रहे थे। इन कवियों के कुल में से एक थे, हरिचंद जिनके सात बेटे थे और सबसे छोटा बेटा सूरजदास या सूरदास था।

माना जाता है कि जब छह बड़े भाई मुसलमानों के साथ युद्ध करते हुए मारे गए थे, तब अंधे सूरदास बहुत दिनों तक इधर-उधर भटक रहे थे। भटकते हुए वो एक कुएं में भी गिर गए और 6 दिनों तक वहीं पड़े रहे। इस दौरान उन्होंने भक्ति भावना से सिर्फ भगवान श्री कृष्ण को पुकारा और सातवें दिन में भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें दर्शन दिए और उससे कहा दक्षिण में उन्हें विद्या मिलेगी।

सूरदास ने उनसे मांगा कि जिन आंखों से उन्होंने अपने भगवान को देखा है वो आंखें अब और कभी कुछ न देख पाए। कृष्ण जी ने उन्हें कुएं से निकालते हुए उनकी आंखें सदा के लिए बंद कर दी।

कई बार सूरदास के अंधेपन को लेकर भी लोगों के मन में सवाल उठते आए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने अपनी रचनाओं में जिस तरह के सुंदर दृश्य और प्रकृति का चित्रण किया है, वैसा कर पाना किसी अंधे इंसान के लिए असंभव है।

सूरदास ने अपनी कुछ रचनाओं में रंगों का इतना ठीक ठीक और सुंदर चित्रण किया है कि उनके अंधेपन पर संदेह होना स्वाभाविक है। इसलिए कुछ लोगों का कहना है कि वो जन्म के बाद शायद अंधे हुए थे। लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।

सूरदास किसके शिष्य थे?

  • बात करें कि सूरदास किसके शिष्य थे तो बता दें कि सूरदास के एकमात्र गुरु थे आचार्य वल्लभाचार्य जी। चौरासी वैष्णव की वार्ता से पता चलता है कि सूरदास पहले गऊघाट गए थे और वहां साधु के रूप में रहते थे।
  • सूरदास के गुरु का नाम वल्लभाचार्य था। एक बार वल्लभाचार्य जी श्रीनाथजी के मंदिर से उतर रहे थे कि सूरदास ने उन्हें अपना पद गाकर सुनाया। वल्लभाचार्य को उनका गया हुआ पर इतना अच्छा लगा कि उन्होंने उसे अपना शिष्य बना लिया और उसे श्रीनाथजी के मंदिर में कीर्तन सेवा करने का मौका दिया।
  • इसी दौरान वल्लभाचार्य ने उन्हें पद रचना और भक्ति की कथाओं को लिखने और गाने की योग्यता सिखाएं। सूरदास की भक्ति भावना उजागर होने लगी। उनका ज्यादातर समय तो सूरदास की रचना करने में और भगवान का भजन कीर्तन करने में ही बीतने लगा।

सूरदास का जीवन परिचय: सूरदास की साहित्यिक यात्रा 

सूरदास की रचनाएँ और कृष्ण भक्ति आज भी लोगों के दिलों में विशेष स्थान रखती हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ और भक्ति का वर्णन इस प्रकार हैं:

सूरदास की कृष्ण भक्ति और उनकी रचनाएँ

  • सूरसागर
  • सूरसारावली
  • साहित्य लहरी

सूरदास की अन्य प्रचलित रचनाएँ

  • ब्याहलो
  • नल-दमयंती

सूरदास की कृष्ण भक्ति का वर्णन

कृष्ण जी की लीलाओं का वर्णन तो रहता है लेकिन उन्हें देखकर किसी दूसरे छोटे बच्चों की मानसिकता का अनुमान लगाया जा सकता है। सूरदास सुर दोहावली पुस्तक में ये लोकप्रिय पद लिखते हुए कहते हैं:

मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी।

किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥

इस पद से कृष्ण की सरलता का पता चलता है जहां वह बहुत प्यार से अपनी मां से पूछते हैं की मां मेरी चोटी कब बढ़ेगी? तुमने इतना मुझे दूध पिलाया लेकिन ये अब भी छोटी सी है।

सूरदास जी की अपनी लेखनी में बाल कृष्ण की लीलाओं का वर्णन, कृष्ण की माखन चोरी की लीलाएँ, गोपियों के साथ रासलीला, राधा-कृष्ण के प्रेम का मार्मिक चित्रण, गहरी भक्ति और आध्यात्मिक भाव का सुन्दर प्रस्तुत किया है।

कृष्ण के इस मनोहर रूप का चित्रण और सूरदास की भक्ति भावना को स्पष्ट तरीके से लोगों को समझने के लिए, सूरदास ने कुछ रचनाएं की जो है सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य-लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो आदि।

प्रमुख काव्य कृतियाँ और उनका प्रभाव

अगर सूरदास के प्रमुख काव्य कृतियों की बात करें तो उसमें सबसे प्रचलित है भ्रमरगीत। बहुत से लोगों ने इसे एक कविता संकलन माना है और कई लोग मानते हैं कि ये गाए जाने वाली कविताओं में से हैं। सूरदास जी की कविताओं को अलग-अलग राग रागिनियों में गया जा सकता है।

इसमें लिखी गई सारी कविताएं विरह के ऊपर है। वो भी गोपियों और कृष्ण के बीच का बिरह। लेकिन सूरदास के विरह चित्रण में भी एक तरह की शांति गोपियों में देखने को मिलती है क्योंकि उन्होंने कृष्ण को अपना मान लिया है और उसके पास रहने या दूर जाने से उनके प्रेम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

सूरदास जी अपनी रचनाओं के जरिए आम लोगों के सामने प्रेम का एक ऐसा रूप लेकर आना चाहते हैं जो स्वार्थी नहीं है और जिसमें भक्ति भी मिली हुई है। उनका मानना है कि आपका आराध्य आपके लिए कुछ भी हो सकता है अगर आप उस सच्चे तरीके से प्रेम और भक्ति करते हैं तो।

सूरदास का जीवन परिचय: सूर सागर का महत्व

सूरदास द्वारा रचित सूरसागर उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से एक मानी जाती है। कहते हैं अगर किसी को Surdas ka Jivan Parichay/सूरदास का जीवन परिचय एवं रचनाओं के संबंध में जानना है तो उसे इसी किताब से मदद मिल सकती है।

सूरसागर को 12 स्कंधों में बांटा गया है जैसा श्रीमद् भागवत गीता में भी देखा जाता है। लोगों के मुताबिक इसमें कुल 4926 पद लिखे गए हैं। इन स्कंधों में ही सिर्फ कृष्ण और सूरदास की भक्ति भावना के बारे में नहीं बल्कि अन्य भक्तों और भगवानों के बारे में भी बताया गया है।

कृष्ण लीलाओं का चित्रण

सूरसागर की दृष्टि से इसमें कृष्ण के बाल रूप का सबसे सुंदर वर्णन मिलता है। कृष्ण के बाल लीलाओं की चर्चा सूरसागर में दसवें स्कंद से शुरू होती है जिसमें कुल 1000 से ज्यादा पद मिलते हैं।

इसमें कृष्ण के बाल जीवन के अलावा उनके द्वारका जाने से लेकर अंत तक की कथा मिलती है। इस दसवें स्कंद में मूल रूप से पांच बातें आपको देखने को मिल जाएंगे और वह पांच बातें हैं बाल लीला, गोचारण, वंशीवादन, रासलीला और भ्रमरगीत।

सूरसागर में सूरदास का वात्सल्य वर्णन और कृष्ण की बाल लीला पर सबसे अधिक पद मिलते हैं। इसमें दिखाया जाता है कि कैसे कृष्ण बचपन से ही राक्षसों को मारते आए हैं और बड़े होने के साथ द्वारा का जाकर कंस का वध करने का दायित्व भी वह पूरा करते हैं।

बाल लीला और वात्सल्य वर्णन के अलावा इसमें श्रृंगार का भी बहुत महत्वपूर्ण भाग दिखाता है। सूरदास ने दिखाया है कि बहुत लंबे समय बाद कृष्ण और राधा का मेल कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद होता है। इस मिलन में श्रृंगार और प्रेम का ऐसा रूप सूरदास सामने लेकर आते हैं जो भक्तों को पूरी तरीके से मोहित करने के लिए काफी है।

सूरदास का जीवन परिचय: सामाजिक और आध्यात्मिक संदेश

  • अगर सूरदास से जुड़ी कोई भी आलोचना की किताब पढ़ेंगे, तो आपको पता चलेगा कि सूरदास को ज्यादातर लोग उनकी भक्ति तथा वात्सल्य से पूर्ण रचनाओं के लिए ही जानते हैं। लेकिन उनके पदों में स्पष्ट रूप से ना सही लेकिन सांकेतिक रूप में कई तरह के सामाजिक प्रसंग सामने उठकर आते हैं।
  • आज जिस नारी चेतना तथा नारी सशक्तिकरण के ऊपर इतनी बातें खुलकर होती है, उसका उल्लेख सूरदास ने बहुत पहले ही अपनी रचनाओं के जरिए पेश किया था। सूरदास की सबसे प्रमुख रचना भ्रमरगीत में दिखाया जाता है की कैसे कृष्ण की गोपियों अपना प्रेमी चुनने के लिए स्वतंत्र है और अगर कोई उन्हें तर्क देकर भी कृष्ण के प्रेम से हटाना चाहे तब भी वह उनका जवाब तड़क और व्यंग्य से देती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सूरदास स्त्रियों को अबला नहीं मानते थे। उन्हें यह चीज बहुत पहले ही मालूम थी कि स्त्रियों के पास भी बुद्धि है और वह अपने बुद्धि के बल पर निर्णय ले सकती हैं।
  • सूरदास के पदों को अगर ध्यान से देखा जाए तो उन्होंने शहरी जीवन के खोखलेपन के ऊपर करारा आघात भी किया है। सूरदास लिखते हैं:

‘भर्थुरा काजर की कोठरर जे आवहििं ते कारे’

  • सूरदास कृष्ण के के माध्यम से और रूपकों के इस्तेमाल से समाज के कई सारे बड़े समस्याओं को हमारे सामने लेकर आते हैं जैसे: किसानों का शोषण, साहूकार और जमींदारों का झूठा वही लिखना तथा उनका अत्याचार। सूरदास इन बातों के बारे में सूरसागर में लिखते हैं कि-

‘भोहरिल पांच सार्थ करर हदने, नतनकी बड़ी षवर्रीनत।

जिम्मे उनके, मांग मोतै, यि तो बड़ी अनीनत

पांच-पचिस सार्थ अगवानी, सब मिली काज बिगारै

सुनी तागीरी, बबसरर गईं सुधी, मो ताजी भए नियारे।

तुलसीदास या कबीर की तरह सूरदास की रचनाओं में सामाजिक समस्या भले ही मुखर तरीके से सामने ना आए लेकिन सामने जरूर आती है। सूरदास अपनी सभी रचनाओं में यही बताते हैं कि अगर इन सभी तरीके के दुखों से छुटकारा पाना है तो आपको सच्चा भक्त बनना पड़ेगा। और सच्चा भक्त बनने के लिए सच्ची भक्ति करनी आवश्यक है।

सूरदास का जीवन परिचय: सूरदास की अंधता और उनकी रचनात्मकता 

अंधता के प्रभाव पर चर्चा

  • सूरदास का जीवन परिचय(Surdas ka Jivan Parichay) अगर ध्यान से देखा जाए तो एक बात तो सच है कि वह अंधे तो अवश्य थे। लेकिन सोचने वाली बात है कि अंधे होने के बावजूद उन्होंने इतनी रचनाएं आंखें कैसे की होगी? 
  • माना जाता है कि सूरदास अंधे होने के साथ-साथ अनपढ़ भी थे। लेकिन उनके गीतों और कविताओं का जब वो उच्चारण करते तब उनके ही शिष्य में से कोई उन कविताओं को लिख लिया करता था।
  • प्रचलित मान्यताओं के मुताबिक दिल्ली के बादशाह अकबर ने भी उनकी रचनाओं को लिखकर एक संकलन बनाने का आदेश दिया था।बादशाह अकबर सूरदास की प्रतिभा से प्रसन्न थे और वह चाहते थे कि सूरदास उनके दरबार का हिस्सा बने।
  • सूरदास ने उनके इस आमंत्रण को मना कर दिया और इस मंदिर में कीर्तन करते रहे। अकबर ने भी उनके इस निर्णय का पूरा सम्मान किया था। इस कथा की पूरी तरह से पुष्टि तो नहीं होती है लेकिन अकबरनामा में सूरदास नामक एक व्यक्ति का नाम जरूर मिलता है।
  • ऐसा माना जाता है कि अंधे होने के बावजूद सूरदास की भक्ति भावना इतनी ज्यादा प्रबल थी कि उन्हें एक बार नहीं लेकिन कई बार कृष्ण के और राधा के भी दर्शन हुए थे। हालांकि उन्होंने कृष्ण को देखा सिर्फ एक ही बार था लेकिन उन्हें कृष्ण और राधा से जुड़ी अनुभूतियां समय-समय पर होती रही थी।

आध्यात्मिक अनुभव और उनका काव्य में प्रतिबिंब

  • एक समय के बाद सूरदास ने अपने आप को कृष्ण की भक्ति में ऐसा ली कर लिया था कि उनकी कृष्ण से मिलने की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी।
  • उन्होंने अपनी कई रचनाओं में लिखा है, कि वह अपने आपको भाग्यशाली मानेंगे अगर उन्हें कृष्ण के चरणों की धूल मिल जाती है तो या वह वृंदावन की नदी के तट पर बसाना चाहते हैं, ताकि वह कृष्ण की लीलाओं को हर रोज आंखों के सामने देख सके।
  • सूरदास ने अपनी रचनाओं में कृष्ण की कई महत्वपूर्ण लीला जैसे कालिया दमन गोवर्धन पर्वत प्रसंग और पूतना वाद का भी उल्लेख किया है।
  • इसके अलावा उन्होंने कृष्ण और गोपियों के बीच प्रेम का जो संबंध स्थापित किया है वह असल में भक्त और प्रभु के बीच का संबंध जाहिर करता है।
  • जिस तरह गोपिया कृष्ण को हमेशा अपने के लिए या देखने के लिए उसकी धुन में मगन रहती है। उसके खिलाफ कोई भी बुरी बात नहीं सुन सकती हैं इस तरह भक्त भी अपने आराध्य या भगवान के करीब जाने के लिए उनसे मिलने के लिए उनकी पूजा वंदना करते रहते हैं।

सूरदास की मृत्यु

उनके जन्म के समान, उनकी मृत्यु के कारण और वर्ष पर विद्वानों के बीच मतभेद है, क्योंकि उपलब्ध संदर्भों के अनुसार सूरदास जी का निधन 1583 ई. (1640 वि.) में मथुरा के निकट परसोली नामक गांव में हुआ था। यह गांव ही उनकी अंतिम निवास स्थान था। उनकी मृत्यु स्वाभाविक थी, क्योंकि उनकी उम्र 100 वर्ष से अधिक थी। इस प्रकार, सूरदास जी की जीवन यात्रा और उनके निधन के बारे में विभिन्न दृष्टिकोणों के कारण, उनके जीवन के अंतिम क्षणों को लेकर कई चर्चाएँ होती हैं।

सूरदास की विरासत और उनका प्रभाव 

भक्ति आंदोलन में योगदान

जब भक्ति आंदोलन अपने चरण पर था, तब सूरदास जी शगुन काव्यधारा के कृष्ण काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि के रूप में सामने आए थे। उनकी रचनाओं की भाषा इतनी सरल और सुंदर होती थी कि आम जनता को उन्हें समझने में कोई दिक्कत नहीं पहुंचती थी।

भक्ति आंदोलन के दौरान जहां देश में एक अशांति का माहौल बना हुआ था वही सूरदास की रचनाएं इन्हीं अशांत दिलों में प्रेम और भक्ति के भाव को बढ़ावा दे रही थी। सूरदास अकेले नहीं बल्कि उनके गुरु श्री वल्लभाचार्य के अन्य शिष्यों के साथ मिलकर कृष्ण भक्ति का प्रचार पूरे भारत में करने की कोशिश कर रहे थे।

सूरदास अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों को यह बताना चाहते हैं कि प्रभु के नाम से ही सिर्फ सुख की प्राप्ति हो सकती है।

आधुनिक साहित्य पर प्रभाव

सूरदास ने सिर्फ भक्ति के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि हिंदी साहित्य के क्षेत्र में भी बहुत नाम कमाया है। आज भी जब कोई महान कवियों की गिनती करता है तो सूरदास का नाम उस लिस्ट में जरूर मिलता ही है।

ऐसा इसलिए क्योंकि सूरदास के पद की व्याख्या से हमें उस समय के साहित्य स्थिति का ज्ञान होता है साथ ही उनके पदों में जिस तरह के अलंकार और रस मिलते हैं उनका महत्व हिंदी साहित्य में बहुत अधिक है। सूरदास ने अपनी रचना में संस्कृत का उपयोग न करके अवधि भाषा का सहारा लिया जिसकी मदद से हिंदी भाषा आगे चलकर और भी ज्यादा साफ और प्रखर तरीके से लोगों के सामने आ पाई।

निष्कर्ष

इस पूरे लेख को ध्यान में रखते हुए कह सकते हैं कि सूरदास साफ ब्रजभाषा का प्रयोग करते थे। उन्हें ब्रजभाषा का सर्वश्रेष्ठ कवि कहा जाता है। कृष्ण के बाल का लीलाओं का, राधा कृष्ण के प्रेम का और गोपियों के साथ विरह वेदना का दिल को दिल को छू जाने वाली मार्मिक चित्रण सूरदास जी ने बड़ी सफलतापूर्वक किया है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

सूरदास के जीवन की प्रमुख घटनाएँ कौन सी हैं?

बल्लभाचार्य से भेंट, कृष्ण भक्ति की शुरुआत और सूरसागर की रचना प्रमुख घटनाएँ हैं।

सूरदास के प्रमुख शिष्यों में कौन-कौन थे?

सूरदास के प्रमुख शिष्य नागरीदास और मीराबाई थीं।

सूरदास के साहित्य में किस प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों का वर्णन है?

सूरदास के साहित्य में होली, जन्माष्टमी, और रास लीला जैसे धार्मिक अनुष्ठानों का वर्णन है।

सूरदास के साहित्य में किस प्रकार का नैतिक उपदेश है?

उनके साहित्य में नैतिकता, सच्चाई और धर्म की शिक्षा दी गई है।

सूरदास की मृत्यु कब हुई?

सूरदास की मृत्यु की तारीख पर विभिन्न मत हैं, लेकिन यह माना जाता है कि उन्होंने 16वीं सदी के अंत में या 17वीं सदी की शुरुआत में परलोक गमन किया।

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