Quick Summary
भक्तिकाल की सगुण धारा के कृष्ण भक्त कवि सूरदास का नाम सबसे पहले आता है। सूरदास को भारत का और भक्ति काल का सूर्य भी कहा जाता है। Surdas ka Jivan Parichay / सूरदास का जीवन परिचय और उनकी रचनाएं पूरी तरीके से कृष्ण भक्ति को समर्पित की जाती है। सूरदास पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तर भारत में एक संत, संगीतकार और कवि थे।
कृष्ण के वात्सल्य को जन-जन के मन में बसा देने का काम सूरदास जी ने बड़ी भली भांति किया है। उनके बारे में ऐसी बहुत सी रोचक बातें हैं जिनके बारे में अगर पढ़ने बैठ तो पूरी उम्र कम पड़ सकती है। फिर भी उनके जीवन से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातों के ऊपर चली नजर डालते हैं।
नाम (Name) | सूरदास |
जन्म तारीख (Birth Date) | 1478 ई० |
जन्म स्थान (Birth Place) | रुनकता ग्राम |
मृत्यु का स्थान (Death) | पारसौली |
पिता का नाम (Father’s Name) | पंडित रामदास |
माता का नाम (Mother’s Name) | जमुनादास बाई |
सूरदास किसके शिष्य थे? (Mentor) | आचार्य बल्लभाचार्य |
भक्ति | कृष्ण की भक्ति |
भाषा की शैली | ब्रज |
रचनाएँ (Creations) | सूरसागर सूरसारावली साहित्य लहरी कृष्ण की बाल- लीलाओं कृष्ण लीलाओं का चित्रण |
मृत्यु | 1583 ई., परसोली, मथुरा के निकट |
सूरदास का वात्सल्य वर्णन करें तो कृष्ण काव्य धारा के इस महान कवि का जन्म, 1478 में सिही गांव में हुआ है। उनके जन्म स्थान के बारे में अलग-अलग राय मिल जाती है।
सूरदास के परिवार के बारे में दो मत आपको बहुत आसानी से मिल जाएंगे। सबसे पहले मत तो ये कि उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके माता का नाम जमुनादास और पिता का नाम रामदास था।
कहा जाता है की बचपन से ही अंधे होने की वजह से उनके माता-पिता ने उनका त्याग कर दिया था। इस विषय में कोई प्रमाण तो नहीं मिलता है लेकिन लोक कथाओं में यही बात सबसे ज्यादा प्रचलित है।
वहीं दूसरी और साहित्य लहरी के अंतिम एक पद के मुताबिक सूरदास जी पृथ्वीराज के कवि चंदवरदाई के वंशज रहे थे। इन कवियों के कुल में से एक थे, हरिचंद जिनके सात बेटे थे और सबसे छोटा बेटा सूरजदास या सूरदास था।
माना जाता है कि जब छह बड़े भाई मुसलमानों के साथ युद्ध करते हुए मारे गए थे, तब अंधे सूरदास बहुत दिनों तक इधर-उधर भटक रहे थे। भटकते हुए वो एक कुएं में भी गिर गए और 6 दिनों तक वहीं पड़े रहे। इस दौरान उन्होंने भक्ति भावना से सिर्फ भगवान श्री कृष्ण को पुकारा और सातवें दिन में भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें दर्शन दिए और उससे कहा दक्षिण में उन्हें विद्या मिलेगी।
सूरदास ने उनसे मांगा कि जिन आंखों से उन्होंने अपने भगवान को देखा है वो आंखें अब और कभी कुछ न देख पाए। कृष्ण जी ने उन्हें कुएं से निकालते हुए उनकी आंखें सदा के लिए बंद कर दी।
कई बार सूरदास के अंधेपन को लेकर भी लोगों के मन में सवाल उठते आए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने अपनी रचनाओं में जिस तरह के सुंदर दृश्य और प्रकृति का चित्रण किया है, वैसा कर पाना किसी अंधे इंसान के लिए असंभव है।
सूरदास ने अपनी कुछ रचनाओं में रंगों का इतना ठीक ठीक और सुंदर चित्रण किया है कि उनके अंधेपन पर संदेह होना स्वाभाविक है। इसलिए कुछ लोगों का कहना है कि वो जन्म के बाद शायद अंधे हुए थे। लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
सूरदास की रचनाएँ और कृष्ण भक्ति आज भी लोगों के दिलों में विशेष स्थान रखती हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ और भक्ति का वर्णन इस प्रकार हैं:
कृष्ण जी की लीलाओं का वर्णन तो रहता है लेकिन उन्हें देखकर किसी दूसरे छोटे बच्चों की मानसिकता का अनुमान लगाया जा सकता है। सूरदास सुर दोहावली पुस्तक में ये लोकप्रिय पद लिखते हुए कहते हैं:
मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी।
किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥
इस पद से कृष्ण की सरलता का पता चलता है जहां वह बहुत प्यार से अपनी मां से पूछते हैं की मां मेरी चोटी कब बढ़ेगी? तुमने इतना मुझे दूध पिलाया लेकिन ये अब भी छोटी सी है।
सूरदास जी की अपनी लेखनी में बाल कृष्ण की लीलाओं का वर्णन, कृष्ण की माखन चोरी की लीलाएँ, गोपियों के साथ रासलीला, राधा-कृष्ण के प्रेम का मार्मिक चित्रण, गहरी भक्ति और आध्यात्मिक भाव का सुन्दर प्रस्तुत किया है।
कृष्ण के इस मनोहर रूप का चित्रण और सूरदास की भक्ति भावना को स्पष्ट तरीके से लोगों को समझने के लिए, सूरदास ने कुछ रचनाएं की जो है सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य-लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो आदि।
अगर सूरदास के प्रमुख काव्य कृतियों की बात करें तो उसमें सबसे प्रचलित है भ्रमरगीत। बहुत से लोगों ने इसे एक कविता संकलन माना है और कई लोग मानते हैं कि ये गाए जाने वाली कविताओं में से हैं। सूरदास जी की कविताओं को अलग-अलग राग रागिनियों में गया जा सकता है।
इसमें लिखी गई सारी कविताएं विरह के ऊपर है। वो भी गोपियों और कृष्ण के बीच का बिरह। लेकिन सूरदास के विरह चित्रण में भी एक तरह की शांति गोपियों में देखने को मिलती है क्योंकि उन्होंने कृष्ण को अपना मान लिया है और उसके पास रहने या दूर जाने से उनके प्रेम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
सूरदास जी अपनी रचनाओं के जरिए आम लोगों के सामने प्रेम का एक ऐसा रूप लेकर आना चाहते हैं जो स्वार्थी नहीं है और जिसमें भक्ति भी मिली हुई है। उनका मानना है कि आपका आराध्य आपके लिए कुछ भी हो सकता है अगर आप उस सच्चे तरीके से प्रेम और भक्ति करते हैं तो।
सूरदास द्वारा रचित सूरसागर उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से एक मानी जाती है। कहते हैं अगर किसी को Surdas ka Jivan Parichay/सूरदास का जीवन परिचय एवं रचनाओं के संबंध में जानना है तो उसे इसी किताब से मदद मिल सकती है।
सूरसागर को 12 स्कंधों में बांटा गया है जैसा श्रीमद् भागवत गीता में भी देखा जाता है। लोगों के मुताबिक इसमें कुल 4926 पद लिखे गए हैं। इन स्कंधों में ही सिर्फ कृष्ण और सूरदास की भक्ति भावना के बारे में नहीं बल्कि अन्य भक्तों और भगवानों के बारे में भी बताया गया है।
सूरसागर की दृष्टि से इसमें कृष्ण के बाल रूप का सबसे सुंदर वर्णन मिलता है। कृष्ण के बाल लीलाओं की चर्चा सूरसागर में दसवें स्कंद से शुरू होती है जिसमें कुल 1000 से ज्यादा पद मिलते हैं।
इसमें कृष्ण के बाल जीवन के अलावा उनके द्वारका जाने से लेकर अंत तक की कथा मिलती है। इस दसवें स्कंद में मूल रूप से पांच बातें आपको देखने को मिल जाएंगे और वह पांच बातें हैं बाल लीला, गोचारण, वंशीवादन, रासलीला और भ्रमरगीत।
सूरसागर में सूरदास का वात्सल्य वर्णन और कृष्ण की बाल लीला पर सबसे अधिक पद मिलते हैं। इसमें दिखाया जाता है कि कैसे कृष्ण बचपन से ही राक्षसों को मारते आए हैं और बड़े होने के साथ द्वारा का जाकर कंस का वध करने का दायित्व भी वह पूरा करते हैं।
बाल लीला और वात्सल्य वर्णन के अलावा इसमें श्रृंगार का भी बहुत महत्वपूर्ण भाग दिखाता है। सूरदास ने दिखाया है कि बहुत लंबे समय बाद कृष्ण और राधा का मेल कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद होता है। इस मिलन में श्रृंगार और प्रेम का ऐसा रूप सूरदास सामने लेकर आते हैं जो भक्तों को पूरी तरीके से मोहित करने के लिए काफी है।
‘भर्थुरा काजर की कोठरर जे आवहििं ते कारे’
‘भोहरिल पांच सार्थ करर हदने, नतनकी बड़ी षवर्रीनत।
जिम्मे उनके, मांग मोतै, यि तो बड़ी अनीनत
पांच-पचिस सार्थ अगवानी, सब मिली काज बिगारै
सुनी तागीरी, बबसरर गईं सुधी, मो ताजी भए नियारे।
तुलसीदास या कबीर की तरह सूरदास की रचनाओं में सामाजिक समस्या भले ही मुखर तरीके से सामने ना आए लेकिन सामने जरूर आती है। सूरदास अपनी सभी रचनाओं में यही बताते हैं कि अगर इन सभी तरीके के दुखों से छुटकारा पाना है तो आपको सच्चा भक्त बनना पड़ेगा। और सच्चा भक्त बनने के लिए सच्ची भक्ति करनी आवश्यक है।
उनके जन्म के समान, उनकी मृत्यु के कारण और वर्ष पर विद्वानों के बीच मतभेद है, क्योंकि उपलब्ध संदर्भों के अनुसार सूरदास जी का निधन 1583 ई. (1640 वि.) में मथुरा के निकट परसोली नामक गांव में हुआ था। यह गांव ही उनकी अंतिम निवास स्थान था। उनकी मृत्यु स्वाभाविक थी, क्योंकि उनकी उम्र 100 वर्ष से अधिक थी। इस प्रकार, सूरदास जी की जीवन यात्रा और उनके निधन के बारे में विभिन्न दृष्टिकोणों के कारण, उनके जीवन के अंतिम क्षणों को लेकर कई चर्चाएँ होती हैं।
जब भक्ति आंदोलन अपने चरण पर था, तब सूरदास जी शगुन काव्यधारा के कृष्ण काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि के रूप में सामने आए थे। उनकी रचनाओं की भाषा इतनी सरल और सुंदर होती थी कि आम जनता को उन्हें समझने में कोई दिक्कत नहीं पहुंचती थी।
भक्ति आंदोलन के दौरान जहां देश में एक अशांति का माहौल बना हुआ था वही सूरदास की रचनाएं इन्हीं अशांत दिलों में प्रेम और भक्ति के भाव को बढ़ावा दे रही थी। सूरदास अकेले नहीं बल्कि उनके गुरु श्री वल्लभाचार्य के अन्य शिष्यों के साथ मिलकर कृष्ण भक्ति का प्रचार पूरे भारत में करने की कोशिश कर रहे थे।
सूरदास अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों को यह बताना चाहते हैं कि प्रभु के नाम से ही सिर्फ सुख की प्राप्ति हो सकती है।
सूरदास ने सिर्फ भक्ति के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि हिंदी साहित्य के क्षेत्र में भी बहुत नाम कमाया है। आज भी जब कोई महान कवियों की गिनती करता है तो सूरदास का नाम उस लिस्ट में जरूर मिलता ही है।
ऐसा इसलिए क्योंकि सूरदास के पद की व्याख्या से हमें उस समय के साहित्य स्थिति का ज्ञान होता है साथ ही उनके पदों में जिस तरह के अलंकार और रस मिलते हैं उनका महत्व हिंदी साहित्य में बहुत अधिक है। सूरदास ने अपनी रचना में संस्कृत का उपयोग न करके अवधि भाषा का सहारा लिया जिसकी मदद से हिंदी भाषा आगे चलकर और भी ज्यादा साफ और प्रखर तरीके से लोगों के सामने आ पाई।
इस पूरे लेख को ध्यान में रखते हुए कह सकते हैं कि सूरदास साफ ब्रजभाषा का प्रयोग करते थे। उन्हें ब्रजभाषा का सर्वश्रेष्ठ कवि कहा जाता है। कृष्ण के बाल का लीलाओं का, राधा कृष्ण के प्रेम का और गोपियों के साथ विरह वेदना का दिल को दिल को छू जाने वाली मार्मिक चित्रण सूरदास जी ने बड़ी सफलतापूर्वक किया है।
बल्लभाचार्य से भेंट, कृष्ण भक्ति की शुरुआत और सूरसागर की रचना प्रमुख घटनाएँ हैं।
सूरदास के प्रमुख शिष्य नागरीदास और मीराबाई थीं।
सूरदास के साहित्य में होली, जन्माष्टमी, और रास लीला जैसे धार्मिक अनुष्ठानों का वर्णन है।
उनके साहित्य में नैतिकता, सच्चाई और धर्म की शिक्षा दी गई है।
सूरदास की मृत्यु की तारीख पर विभिन्न मत हैं, लेकिन यह माना जाता है कि उन्होंने 16वीं सदी के अंत में या 17वीं सदी की शुरुआत में परलोक गमन किया।
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