गोलकनाथ केस क्या है? गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य 1967

October 11, 2024
गोलकनाथ केस
Quick Summary

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गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य जिसे गोलकनाथ केस/मामला भी कहा जाता है, केरल के एक किसान, गोलकनाथ द्वारा दायर किया गया था। गोलकनाथ ने तर्क दिया था कि संसद को संविधान के भाग III में उल्लिखित मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने 1967 में इस मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन इन अधिकारों के मूल ढांचे को नहीं बदल सकती। इस फैसले का मतलब था कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन करके उन्हें कमजोर तो कर सकती है, लेकिन उन्हें पूरी तरह से खत्म नहीं कर सकती।

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गोलकनाथ केस 1967, जिसे गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967 AIR 1643, 1967 SCR (2) 762) के नाम से भी जाना जाता है, 1967 में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक फैसला था। इस मुकदमे ने भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ ला दिया। भारतीय संविधानिक दृष्टिकोण से यह फैसला काफी महत्वपूर्ण था जिसके बारे में आपको जानकारी होनी चाहिएं।

इस ब्लॉग में आपको गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य मामला क्या था, गोलकनाथ मुकदमा कब आया, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का इसपर निर्णय, संविधान पर इसका प्रभाव और परिणाम के बारे में विस्तार से जानकारी मिलेगी।

गोलकनाथ मामला: इतिहास

मामले का अवलोकन
केस का शीर्षकगोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य
केस संख्यारिट याचिका संख्या 153/1966
आदेश की तिथि27 फरवरी, 1967
अधिकार क्षेत्रभारत का सर्वोच्च न्यायालय
बेंचमुख्य न्यायाधीश के. सुब्बा राव और दस अन्य न्यायाधीश
अपीलकर्ताआई.सी. गोलकनाथ और अन्य
प्रतिवादीपंजाब राज्य
शामिल प्रावधानभारत का संविधान, अनुच्छेद 13 और मौलिक अधिकार
गोलकनाथ मामला-मामले का अवलोकन

गोलकनाथ मुकदमा कब हुआ?

1965 में, पंजाब राज्य के, गोलकनाथ परिवार ने भारतीय सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की। याचिका में उन्होंने तर्क दिया कि पंजाब पुनर्गठन अधिनियम 1953, उनकी संपत्ति के अधिकार (अनुच्छेद 31) का उल्लंघन करता है। यह अधिनियम उनके भूमि को राज्य सरकार में हस्तांतरित करता था, जिससे गोलकनाथ की संपत्ति प्रभावित हुई थी।

गोलकनाथ केस में मुख्य विवाद और मुद्दे

विवाद:

हेनरी और विलियम गोलकनाथ के पास पंजाब के जालंधर में खेती के लिए 500 एकड़ के करीब जमीन थी। पंजाब सुरक्षा और भूमि काश्तकारी अधिनियम के तहत सरकारी फैसला था की सिर्फ तीस एकड़ जमीन ही दोनों भाई रख सकते हैं। उनके जमीन में से कुछ एकड़ जमीन किराएदारों को दी जाएगी और बाकी जमीन को अतिरिक्त घोषित किया जाएगा।

गोलकनाथ के परिवार ने अदालतों में इस पर विवाद किया। केस 1965 में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा। यह केस 1967 भारत के संविधान के 17वें संशोधन (जिसने पंजाब अधिनियम को नौवीं अनुसूची में रखा था) की वैधता को चुनौती देने वाला एक महत्वपूर्ण मामला था। इस संशोधन ने संसद को मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करने वाली कानूनों को पारित करने की शक्ति दी थी।

मुद्दे:

  • मौलिक अधिकारों की प्रकृति: क्या अनुच्छेद 13(3)(A) के तहत मौलिक अधिकार संसद द्वारा संशोधित कि जा सकती हैं?
  • संविधान की शक्ति: क्या संसद के पास संविधान के मूल ढांचे को बदलने की शक्ति है?
  • न्यायिक समीक्षा: क्या न्यायालयों के पास संसद द्वारा पारित कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा करने का अधिकार है?

गोलकनाथ कौन थे?

हेनरी और विलियम गोलकनाथ महत्वपूर्ण परिवार से थे जो भारत के संवैधानिक इतिहास में विशेष स्थान रखते हैं। 1967 में, गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य मामले में, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। गोलकनाथ परिवार का नाम इसलिए जाना जाता है क्योंकि गोलकनाथ केस ने भारतीय न्यायिक प्रणाली और संविधान की व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

परिवार ने, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय में अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर कर 1953 के पंजाब अधिनियम को कोर्ट में चुनौती दी। उनका कहना था कि यह अधिनियम उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। उन्होंने कहा:

  • यह अधिनियम उन्हें संपत्ति अर्जित करने और रखने तथा किसी भी पेशे का अभ्यास करने की स्वतंत्रता से वंचित करता है, जो अनुच्छेद 19 (1) (F) और 19 (1) (G) के तहत मिलने वाले उनके अधिकार हैं।
  • यह अधिनियम कानून के समक्ष समानता और समान संरक्षण का अधिकार भी छीनता है, जो अनुच्छेद 14 के तहत उनका मौलिक अधिकार है।

इसके अलावा, उन्होंने सत्रहवें संशोधन को भी चुनौती दी, जिसके तहत पंजाब अधिनियम को नौवीं अनुसूची में रखा गया था। उनका तर्क था कि यह संशोधन असंवैधानिक है।

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: गोलकनाथ केस का फैसला

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और उसका आधार

निर्णय:

24 फरवरी 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने 6:5 के बहुमत से गोलकनाथ के पक्ष में फैसला सुनाया। इस सुनवाई में मुख्य न्यायधीश के. सुब्बा राव के अलावा और 10 न्यायधीश थें।

  • 6 जजों के बहुमत ने माना कि संविधान बदलने की प्रक्रिया (अनुच्छेद 368) भी एक “कानून” ही है, जैसे कि आम कानून।
  • अल्पसंख्यक जजों का मानना था कि संसद की सामान्य कानून बनाने की शक्ति और संविधान बदलने की शक्ति अलग है।
  • बहुमत ने कहा कि अनुच्छेद 368 सिर्फ प्रक्रिया बताता है, शक्ति नहीं देता। असल में, शक्ति अनुसूची 7 की सूची 1 की प्रविष्टि 97 से मिलती है।
  • अनुच्छेद 13(2) के अनुसार, संसद ऐसे कानून नहीं बना सकती जो मौलिक अधिकारों को कम करते हों।
  • इसका मतलब है कि जो भी संविधान, संशोधन मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, वे निष्क्रिय हैं।

इस फैसले का मतलब:

  • पहले, यह माना जाता था कि संसद संविधान के किसी भी हिस्से को बदल सकती है, चाहे वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो।
  • अब, यह स्पष्ट है कि संसद मौलिक अधिकारों को कम करने वाले संशोधन नहीं कर सकती।
  • यह फैसला मौलिक अधिकारों को मजबूत करता है और नागरिकों को सरकार के मनमाने कार्यों से बचाता है।

गोलकनाथ केस का संविधान संशोधन पर प्रभाव 

गोलकनाथ केस 1967 ने, संविधान संशोधन की प्रक्रिया पर बड़ी रोक लगा दी और यह सुनिश्चित किया कि मौलिक अधिकार सुरक्षित रहें। इस केस ने भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका को और मजबूत किया।

  1. मौलिक अधिकारों की सुरक्षा: गोलकनाथ केस 1967 के फैसले ने स्थापित किया कि संसद मौलिक अधिकारों को कमजोर करने या उन्हें पूरी तरह से समाप्त करने के लिए संविधान में संशोधन नहीं कर सकती। यह मौलिक अधिकारों को संसदीय सर्वोच्चता से ऊपर रखता है और नागरिकों को सरकार की मनमानी शक्ति से बचाता है।
  2. न्यायिक समीक्षा की शक्ति: इस फैसले ने न्यायालय को यह तय करने का अधिकार दिया कि क्या कोई कानून संविधान के अनुरूप है या नहीं? इसने न्यायपालिका को भारतीय संविधान का रक्षक बना दिया और संविधानवाद को मजबूत किया।
  3. संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत: गोलकनाथ के फैसले ने संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा पेश की। यह माना जाता है कि संविधान के कुछ मौलिक सिद्धांत हैं जिन्हें किसी भी संशोधन द्वारा बदला नहीं जा सकता। यह संविधान को परिवर्तन से बचाने और भारतीय लोकतंत्र के मूल्यों को बनाए रखने में मदद करता है।

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य मामले में संबोधित प्रावधान: अनुच्छेद 368 और 13

गोलकनाथ केस में अनुच्छेद 368 और अनुच्छेद 13 का महत्व

  1. अनुच्छेद 368: यह अनुच्छेद संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार देता है। मतलब, संसद संविधान के किसी भी हिस्से में बदलाव कर सकती है।
  2. अनुच्छेद 13: यह अनुच्छेद कहता है कि कोई भी कानून, जो मौलिक अधिकारों का हनन करता है, वह शून्य और अमान्य होगा।

गोलकनाथ केस में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद अनुच्छेद 368 के तहत मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती क्योंकि अनुच्छेद 13 उन्हें संरक्षित करता है। इस फैसले ने संसद की शक्ति को सीमित कर दिया और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी।

गोलकनाथ केस के प्रभाव और परिणाम

केस के निर्णय: भारतीय राजनीति और कानून पर दीर्घकालीन प्रभाव

गोलकनाथ केस का निर्णय भारतीय राजनीति और कानून पर कई दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ गया, जो कुछ इस प्रकार हैं:

  1. मौलिक अधिकारों की सुरक्षा: इस फैसले ने सुनिश्चित किया कि मौलिक अधिकारों को संसद भी नहीं बदल सकती, जिससे नागरिकों के अधिकार और अधिक सुरक्षित हो गए।
  2. संविधान का मूल ढांचा: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान का मूल ढांचा (Basic Structure) संसद भी नहीं बदल सकती। इससे यह सुनिश्चित हुआ कि संविधान की मुख्य विशेषताएं बरकरार रहें।
  3. न्यायपालिका की ताकत: इस केस ने भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता और ताकत को बढ़ाया। सुप्रीम कोर्ट ने यह साबित कर दिया कि वह संसद के फैसलों की समीक्षा कर सकते है।
  4. संविधान संशोधन पर सीमाएं: इस फैसले के बाद, संसद को संविधान में संशोधन करते समय अधिक सावधानी बरतनी पड़ी। इससे विधि निर्माण प्रक्रियाओं में संतुलन बना रहा।
  5. राजनीतिक बहस: यह फैसला भारतीय राजनीति में बड़े विवाद और बहस का विषय बना रहा। कई राजनैतिक दलों ने इसे लेकर अपने विचार प्रकट किए और इसके प्रभावों पर चर्चा की।

आगे चलकर 5 नवंबर 1971 में, संसद ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए 24वां संशोधन पारित किया गया। इस संशोधन के जरिए संविधान में स्पष्ट रूप से यह प्रावधान किया गया कि संसद को मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने का अधिकार है। इसके लिए अनुच्छेद 13 और 368 में संशोधन किया गया ताकि अनुच्छेद 368 के तहत किए गए संशोधन अनुच्छेद 13 के अंतर्गत मौलिक अधिकारों को कम करने या छीनने वाले कानूनों की रोक से बाहर रहें।

गोलकनाथ केस पर आलोचना और प्रतिक्रिया

आलोचनाएँ:

  • संविधान में स्थिरता की कमी: कुछ लोगों का मानना था कि यह फैसला संविधान में बदलाव करने की संसद की क्षमता को कमजोर कर देता है, जिससे संविधान में आवश्यक सुधार नहीं हो पाएंगे।
  • लोकतंत्र पर असर: कुछ आलोचकों ने कहा कि यह निर्णय लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है क्योंकि इससे चुनी हुई सरकार के अधिकार सीमित हो जाते हैं।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप: कुछ लोगों का आरोप था कि इस फैसले में राजनीतिक हस्तक्षेप था और न्यायालय ने सरकार को कमजोर करने के लिए जानबूझकर फैसला सुनाया।

विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया:

विशेषज्ञों ने गोलकनाथ केस के निर्णय पर विभिन्न प्रतिक्रिया व्यक्त की है। कुछ विशेषज्ञों ने इस फैसले का समर्थन किया है, जबकि अन्य ने इसकी आलोचना की थी।

समर्थकआलोचक
न्यायिक समीक्षा: कुछ विशेषज्ञों का तर्क था कि इस फैसले ने न्यायिक समीक्षा की शक्ति को मजबूत किया, जो लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।न्यायिक अतिवाद: कुछ विशेषज्ञों का मानना था कि इस फैसले ने न्यायालय को अत्यधिक शक्ति प्रदान की, जिससे न्यायिक अतिवाद का मार्ग प्रशस्त हुआ।
संविधानवाद: कुछ विशेषज्ञों का मानना था कि इस फैसले ने भारत में संविधानवाद को मजबूत किया है।संसदीय संप्रभुता: कुछ विशेषज्ञों का तर्क था कि इस फैसले ने संसद की श्रेष्ठता को कमजोर किया।
मौलिक अधिकारों की रक्षा: अन्य विशेषज्ञों का तर्क था कि इस फैसले ने मौलिक अधिकारों की रक्षा की और नागरिकों को सरकार की मनमानी शक्ति से बचाया।अस्पष्टता: अन्य विशेषज्ञों का तर्क था कि मूल ढांचे की अवधारणा अस्पष्ट है और इसका दुरुपयोग किया जा सकता है।
विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया

केशवानंद भारती केस से तुलना

गोलकनाथ केस और केशवानंद भारती केस के बीच तुलना

केशवानंद भारती केस (1973) में सुप्रीम कोर्ट ने “मूल संरचना सिद्धांत” (Basic Structure Doctrine) पेश किया। इसके अनुसार, संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन संविधान की मूल संरचना को नहीं बदल सकती।

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) और केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) भारत के संवैधानिक इतिहास में दो ऐतिहासिक मामले हैं जिन्होंने संसद की संशोधन शक्ति और न्यायिक समीक्षा की शक्ति के बीच संबंधों को परिभाषित किया।

समानताएं:

  • दोनों मामलों ने मौलिक अधिकारों के महत्व को रेखांकित किया और उन्हें सरकार की मनमानी शक्ति से बचाने का प्रयास किया।
  • दोनों मामलों ने न्यायिक समीक्षा की शक्ति को स्वीकार किया, जिसके तहत न्यायालय यह तय कर सकता है कि कानून संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।
मुद्दागोलकनाथ मामलाकेशवानंद भारती मामला
संसद की संशोधन शक्तिइस मामले में, न्यायालय ने माना कि संसद के पास संविधान के मूल ढांचे को बदलने की शक्ति नहीं है।इस मामले में, न्यायालय ने माना कि संसद के पास संविधान के मूल ढांचे को संशोधित करने की शक्ति है, लेकिन कुछ सीमाओं के साथ।
मूल ढांचे का सिद्धांतइस मामले में, न्यायालय ने संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत स्थापित किया, जिसमें कुछ मौलिक अधिकार शामिल थे।इस मामले में, न्यायालय ने मूल ढांचे की अवधारणा को स्पष्ट किया और इसमें संविधान की बुनियादी ढांचे, मूल विशेषताएं और मूल सिद्धांत शामिल किए।
न्यायिक सक्रियताइस मामले में, न्यायालय ने न्यायिक सक्रियता का प्रदर्शन किया, जिसमें उसने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनों की व्याख्या की।इस मामले में, न्यायालय ने न्यायिक सक्रियता के प्रति अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया और संसद की संप्रभुता को भी मान्यता दी।
गोलकनाथ केस और केशवानंद भारती केस के बीच तुलना

गोलकनाथ केस का सारांश | Golak nath Case Summary

गोलकनाथ केस भारतीय संविधान के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। यह मामला इस प्रश्न पर केंद्रित था कि क्या भारतीय संसद को भारतीय संविधान में किसी भी उचित तरीके से संशोधन करने का अधिकार है या नहीं।

यह मामला 1967 में सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा था। गोलकनाथ नामक एक व्यक्ति ने दलील दी थी कि संसद मौलिक अधिकारों को खत्म करने वाले कानून नहीं बना सकती है। उन्होंने तर्क दिया कि मौलिक अधिकार संविधान का आधार हैं और इनमें संसद द्वारा बदलाव नहीं किया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने गोलकनाथ की याचिका को स्वीकार करते हुए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि संसद मौलिक अधिकारों को खत्म नहीं कर सकती है। कोर्ट ने यह भी कहा कि संविधान संशोधन करते समय संसद को मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए।

इस फैसले ने भारतीय संविधान के स्वरूप को बदल दिया। इसने यह स्पष्ट कर दिया कि मौलिक अधिकार संविधान का आधार हैं और इनकी रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है। इस फैसले के बाद संसद को संविधान संशोधन करते समय अधिक सावधानी बरतनी पड़ी।

गोलकनाथ के फैसले के बाद, संसद ने 24वां और 25वां संविधान संशोधन किया। इन संशोधनों के माध्यम से संसद ने गोलकनाथ के फैसले को पलटने की कोशिश की। हालांकि, बाद में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गोलकनाथ के फैसले को बरकरार रखा और संविधान की मूल संरचना के सिद्धांत को प्रतिपादित किया।

निष्कर्ष 

गोलकनाथ केस 1967 का फैसला एक ऐतिहासिक फैसला था जिसके भारतीय राजनीति और कानून पर गहरे और स्थायी प्रभाव पड़े। गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के केस ने न्यायिक समीक्षा की शक्ति को मजबूत किया, मौलिक अधिकारों को मजबूत किया, और भारतीय लोकतंत्र और मानवाधिकारों को मजबूत करने में मदद की। कुछ पक्षों ने इस फैसले की आलोचना की मगर कुछ पक्षों ने इस फैसले का समर्थन किया।

इस ब्लॉग में आपने जाना की गोलकनाथ केस 1967 क्या था, गोलकनाथ मुकदमा कब आया, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय, संविधान संशोधन पर इसका प्रभाव और परिणाम तथा गोलकनाथ केस और केशवानंद भारती केस में क्या समानताएं थी।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

गोलकनाथ केस का कन्हैया लाल मिश्र और नानी पालकीवाला पर क्या प्रभाव पड़ा?

कन्हैया लाल मिश्र ने सरकार की ओर से और नानी पालकीवाला ने गोलकनाथ परिवार की ओर से केस लड़ा, जिससे वे प्रसिद्ध वकील बने।

गोलकनाथ केस का फैसला कितने न्यायाधीशों ने सुनाया था?

गोलकनाथ केस का फैसला 11 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सुनाया था।

गोलकनाथ केस में मुख्य न्यायाधीश कौन थे?

इस मामले में मुख्य न्यायाधीश एस. एम. सीकरी (Subba Rao) थे।

गोलकनाथ केस में किस न्यायाधीश ने असहमति का मत व्यक्त किया था?

न्यायमूर्ति जे. सी. शाह और अन्य चार न्यायाधीशों ने असहमति का मत व्यक्त किया था।

गोलकनाथ केस के समय भारत के राष्ट्रपति कौन थे?

इस केस के समय भारत के राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन थे।

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